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Potato Farming

आलू उत्पादक अपनी फसल को झुलसा रोग से कैसे बचाएं ?

आलू उत्पादक अपनी फसल को झुलसा रोग से कैसे बचाएं ?

किसानों को खेती किसानी के लिए मजबूत बनाने में कृषि वैज्ञानिक और कृषि विज्ञान केंद्र की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसी कड़ी में ICAR की तरफ से आलू की खेती करने वाले कृषकों के लिए एडवाइजरी जारी की है। कृषकों को सर्दियों के समय अपनी फसलों का संरक्षण करने के उपाय और निर्देश दिए गए हैं। 

आलू की खेती करने वाले कृषकों के लिए महत्वपूर्ण समाचार है। यदि आप भी आलू का उत्पादन करते हैं, तो इस समाचार को भूल कर भी बिना पढ़े न जाऐं।  क्योंकि, यह समाचार आपकी फसल को एक बड़ी हानि से बचा सकता है। दरअसल, सर्दियों के दौरान कोहरा कृषकों के लिए एक काफी बड़ी चुनौती बन जाता है। विशेष रूप से जब कड़ाकड़ाती ठंड पड़ती है। इस वजह से केंद्रीय आलू अनुसंधान संस्थान मोदीपुरम मेरठ (ICAR) ने आलू की खेती करने वाले किसानों के लिए एक एडवाइजरी जारी की है।

ICAR की एडवाइजरी में क्या क्या कहा गया है ?

ICAR की इस एडवाइजरी में कृषकों को यह बताया गया है, कि वे अपनी फसलों को किस तरह से बचा कर रख सकते हैं। कुछ ऐसे तरीके बताए गए हैं, जो कि सहज हैं और जिनसे आप अपनी फसलों को काफी सुरक्षित रख सकेंगे। यदि किसान के पास सब्जी की खेती है, तो उसे मेढ़ पर पर्दा अथवा टाटी लगाकर हवा के प्रभाव को कम करने पर कार्य करना चाहिए। ठंडी हवा से फसल को काफी ज्यादा हानि पहुंचती है। इसके अतिरिक्त कृषि विभाग की तरफ से जारी दवाओं की सूची देखकर किसान फसलों पर स्प्रे करके बचा सकते हैं। सर्दियों में गेहूं की फसल को कोई हानि नहीं होती है। हालांकि, सब्जियों की फसल काफी चौपट हो सकती है। ऐसी स्थिति में कृषकों को सलाह मशवरा दिया गया है, कि वह वक्त रहते इसका उपाय कर लें।

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किसान भाई आलू की फसल में झुलसा रोग से सावधान रहें 

ICAR के एक प्रवक्ता का कहना है, कि आलू की खेती करने वाले कृषकों के लिए विशेष सलाह जारी की गई है। इसकी वजह फंगस है, जो कि झुलसा रोग या फाइटोथोड़ा इंफेस्टेस के रूप में जाना जाता है। यह रोग आलू में तापमान के बीस से पंद्रह डिग्री सेल्सियस तक रहने पर होता है। अगर रोग का संक्रमण होता है या वर्षा हो रही होती है, तो इसका असर काफी तीव्रता से फसल को समाप्त कर देता है। आलू की पत्तियां रोग के चलते किनारे से सूख जाती हैं। किसानों को हर दो सप्ताह में मैंकोजेब 75% प्रतिशत घुलनशील चूर्ण का पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। अगर इसकी मात्रा की बात करें तो यह दो किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के तौर पर होनी चाहिए।

आलू की खेती में इन चीजों का स्प्रे करें

प्रवक्ता का कहना है, कि संक्रमित फसल का संरक्षण करने के लिए मैकोजेब 63% प्रतिशत व मेटालैक्सल 8 प्रतिशत या कार्बेन्डाजिम व मैकोनेच संयुक्त उत्पाद का 2 ग्राम प्रति लीटर पानी या 2 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर में 200 से 250 लीटर पानी में घोल बनाकर स्प्रे करें। इसके अतिरिक्त, तापमान 10 डिग्री से नीचे होने पर किसान रिडोमिल 4% प्रतिशत एमआई का इस्तेमाल करें। 

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अगात झुलसा रोग अल्टरनेरिया सोलेनाई नामक फफूंद की वजह से होता है। इसकी वजह से पत्ती के निचले भाग पर गोलाकार धब्बे निर्मित हो जाते हैं, जो रिंग की भांति दिखते हैं। इसकी वजह से आंतरिक हिस्से में एक केंद्रित रिंग बन जाता है। पत्ती पीले रंग की हो जाती है। यह रोग विलंब से पैदा होता है और रोग के लक्षण प्रस्तुत होने पर किसान 75% प्रतिशत विलुप्तिशील चूर्ण, मैंकोजेब 75% प्रतिशत विलुप्तिशील पूर्ण या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 50% प्रतिशत विलुप्तिशील चूर्ण को 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर पर पानी में घोलकर छिड़काव कर सकते हैं। 

परेशानी का निकाला तोड़, पथरीली जमीन पर उगा दिया आलू

परेशानी का निकाला तोड़, पथरीली जमीन पर उगा दिया आलू

पारम्परिक खेती क्लाइमेट बदलने की वजह से काफी बर्बाद हो रही है. लेकिन आजकल की पीढ़ी के युवा किसानों ने इस परेशानी का तोड़ निकाल लिया है. खेती से जुड़े नये नये प्रयोग से युवा किसान ने पथरीली जमीन को भी उपजाऊ बना दिया और उसमें आलू की दो नई किस्में बो दी. जैसा की हम सब जानते हैं, कि क्लाइमेट बदलने की वजह से मौसम की मार बुरी तरह से पारम्परिक खेती को बर्बाद कर देता है. जिसके चलते अब पारम्परिक खेती करने के तरीके में बदलाव आ चुका है. हालांकि राजस्थान के सिरोही जिले के गांवों में खेती करके के ही किसान अपना और अपने परिवार का पेट पाल रहे हैं. जिस जगह पर जीरा, गेहूं और सौंफ जैसी फसलों की पैदावार वाले इलाके में युवा किसान आलू बो रहे हैं. इस जिले से करीब 25 किलोमीटर की दूरी पर बसे भूतगांव के युवा किसान दिनेश माली ने अपनी 34 साल की उम्र में आलू की दो किस्में संताना और एलआर को 80 बीघा जमीन पर बोया है. दिनेश माली की मानें तो उन्होंने पहले पपीते का व्यापार किया. जिस वजह से उनका आना जाना गुजरात में होता था. आलू की स्पेशल क्रॉप को बोने का ये आईडिया भी उन्हें वहीं से मिला. उन्होंने बताया कि इसके लिए उन्होंने काफी ज्यादा मेहनत की है. इसके लिए उन्होंने पहले पथरीली जमीन को उपजाऊ बनाया. फिर गुजरात से लाल और सफेद रंग के आलू को 80 बीघा जमीन पर बोया. उनका कहना है कि, यह उनकी पहली फसल है. ये भी देखें: हवा में आलू उगाने की ऐरोपोनिक्स विधि की सफलता के लिए सरकार ने कमर कसी, जल्द ही शुरू होगी कई योजनाएं युवा किसान दिनेश ने बताया कि उन्होंने अपनी 30 बीघा जमीन पर लाल आलू बोया है. वहीं 10 बीघा प्रति टन के हिसाब से यह फसल चार महीने में तैयार हो जाएगी. वहीं सफ़ेद आलू की फसल तीन महीने में तैयार हो जाएगी. शार्ट टर्म में इस खेती में अच्छी खाद, पानी और गुड़ाई की जरूरत पड़ती है. अगर इन सब चीजों का अच्छे से ध्यान रखा जाए तो, यह फसल अच्छी कमाई करवाएगी.
धान की फसल के बाद भी किसान कर सकते हैं आलू की खेती, जाने सम्पूर्ण जानकारी

धान की फसल के बाद भी किसान कर सकते हैं आलू की खेती, जाने सम्पूर्ण जानकारी

आलू की खेती रबी के मौसम में बड़े पैमाने पर की जाती है। उत्तर प्रदेश में आलू की खेती सबसे ज्यादा की जाती है। आलू की खेती किसी भी प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है। आलू की बुवाई का कार्य छोटे किसानों द्वारा हाथ से किया जाता हैं वही बड़े किसानों द्वारा मशीन से  बुवाई का कार्य किया जाता हैं। अब किसानों द्वारा आलू की खेती धान की कटाई के बाद भी की जा सकती हैं। इस लेख में हम आपको आलू की खेती के बारे में सम्पूर्ण जानकरी देंगे।

आलू की बुवाई के लिए भूमि की तैयारी 

आलू की बुवाई के लिए सबसे पहले भूमि की अच्छे तरीके से जुताई होनी चाहिए। खेत की जुताई के बाद आलू की रोपाई से पहले उसमे जैविक खाद को भी मिलाया जाता हैं ताकि आलू की उर्वरकता अच्छे से हो सके। आलू की खेती करने से पहले भूमि की कम से कम दो से तीन बार जुताई करनी चाहिए। अंतिम जुताई से पहले खेत में 4 से 5 ट्राली गोबर की खाद डालनी चाहिए और बाद में जुताई करके उसे खेत में अच्छी तरीके से मिला दे, ताकि पूरे खेत में खाद फ़ैल जाये और भूमि को ज्यादा उपजाऊ बनाया जा सके। इस खाद के प्रयोग से खेत की उर्वरा शक्ति भी बनी रहेगी और आलू के उत्पादन में भी इजाफा होगा।

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आलू की बुवाई का सबसे अच्छा समय क्या हैं

आलू की बुवाई के लिए सबसे अच्छा समय सितम्बर से अक्टूबर के बीच का महीना माना जाता है।  यानी जब धान की कटाई पूरी हो जाती हैं इसके तुरत बाद यदि किसान आलू की खेती करना चाहे तो कर सकता है।  15 सितम्बर से 15अक्टूबर के बीच का समय आलू की बुवाई के लिए बेहतर माना जाता हैं। साल में आलू की बुवाई दो बार की जाती हैं। सितम्बर माह से आलू की बुवाई को अगेती बुवाई माना जाता है। किसान नवंबर से दिसंबर के महीने में भी आलू की पछेती रोपाई करते है।

आलू की फसल में कितनी बार सिंचाई की जानी चाहिए

आलू की बुवाई के बाद खेत में 3 - 4 सिंचाई की जानी चाहिए। यदि आलू की फसल में ज्यादा पानी लगाया जायेगा तो फसल खराब भी हो सकती है। आलू की फसल में हमेशा हल्की से माध्यम सिंचाई ही करनी चाहिए। आलू की खुदाई के कुछ दिन पहले से ही सिंचाई को रोक देना   चाहिए। अगर सिंचाई का कार्य रोका नहीं जाता हैं तो इससे फसल को भारी नुक्सान पहुंच सकता हैं। आलू के खेत में सिर्फ इतना ही पानी देना चाहिए जिससे मिट्टी में नमी रह सके। यदि आपको लगता हैं की आलू के पौधे पीले पड रहे हैं, तो उसी समय खेत में पानी देना बंद कर दे।

क्या आलू की खेती में ज्यादा लागत आती हैं

आलू की खेती में अन्य फसलों के मुकाबले ज्यादा लागत नहीं आती हैं।आलू की खेती छोटे किसान भी लाभ उठाने के लिए कर सकते है। आलू की खेती भारत के बहुत से राज्यों में सामान्य रूप से करी जाती है। आलू की फसल का उत्पादन किसान द्वारा साल में दो बार किया जा सकता हैं आलू की खेती में बहुत ही कम पानी की आवश्कता रहती है।  यदि किसान रासायनिक पदार्थो का उपयोग करके उत्पादन नहीं करना चाहते हैं तो वो जैविक खाद का भी उपयोग कर सकते हैं या फिर गोबर खाद का भी उपयोग किसानो द्वारा किया जा सकता है।

आलू की खुदाई कब की जाती हैं

आलू की खुदाई मध्य मार्च के महीने में करी जाती हैं। आलू की खुदाई का सही समय मध्य मार्च  ही माना जाता है। आलू की फसल लगभग 60 दिन में पककर तैयार हो जाती हैं, लेकिन ज्यादा से ज्यादा समय 90-110 दिन का समय आलू की फसल को पकने में लगता है। आलू की खुदाई के बाद कम से कम आलू को कुछ दिनों के लिए सूखने के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए ताकि आलू को विभिन्न रोगों से बचाया जा सके। आलू की फसल को कई प्रकार के रोगों से बचाने के लिए किसानों द्वारा आलू को कोल्ड स्टोर जैसी जगहों पर स्टॉक कर दिया जाता हैं, ताकि आलू की कीमत बढ़ने पर आलू को स्टोर से निकाला जा सके और उन्हें अच्छी कीमतों पर बेचा जा सकें। 

विश्व का सबसे महंगा आलू कहाँ उगाया जाता है ?

विश्व का सबसे महंगा आलू कहाँ उगाया जाता है ?

आज हम आपको बताऐंगे आलू की बेहतरीन किस्म के बारे में। विश्व का सबसे महंगा आलू फ्रांस का ले बोनोटे अपने अलहदा स्वाद की वजह से विश्व के सबसे महंगे आलू के तौर पर जाना जाता है। यह 50,000 से लेकर 90,000 रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से बिकता है। आलू को सब्जियों का राजा कहा जाता है। क्योंकि, यह स्वाद में अव्वल स्थान पर आता है। आलू हम सबकी जिंदगी में विशेष स्थान रखता है। बतादें, कि कभी सब्जी तो कभी स्नैक्स के तौर पर इसका भर-भरकर उपयोग होता है।  सामान्यतः आलू का पूरी साल उपभोग किया जाता है। क्योंकि, इसकी कीमत कम होती है। साथ ही, हर किसी व्यंजन के साथ यह घुलमिल सकता है। फिलहाल, फुटकर में इसकी कीमत 10 से 15 रुपये प्रति किलो है। साथ ही, वर्ष भर यह अधिक से अधिक 20 से 50 रुपये के मध्य ही बिकता है। परंतु, क्या आपको जानकारी है, कि आलू की एक ऐसी भी किस्म है, जो सोने-चांदी की कीमत पर आती है। 

ले बोनोटे आलू की पैदावार किस देश में की जाती है

हम जिस आलू की बात कर रहे हैं, उस किस्म का नाम
ले बोनोटे Le Bonnotte है। यह किस्म केवल फ्रांस के अंदर ही उगाया जाता है। इस एक किलो आलू की कीमत इतनी अधिक है, कि किसी भी मध्यमवर्गीय परिवार के घर का वर्षभर का राशन जाए। यह 50,000 रुपये से लेकर 90,000 रुपये प्रति किलोग्राम की कीमत पर बिक्रय किया जाता है। अब इसमें चकित करने वाली बात यह है, कि इतना महंगा होने के बावजूद ले बोनोटे की खूब खरीदारी होती रहती है। इसकी वजह है, इसकी कम पैदावार। वर्षभर में इसका उत्पादन मई एवं जून के मध्य ही होता है। बेशक इसकी कीमत सातवें आसमान पर है। परंतु, तब भी लोग इसको खरीदकर खाने के लिए सदैव तैयार रहते हैं। 

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आलू की पैदावार कितनी होती है

आलू की इस किस्म के आलू के स्वाद को जो चीज सबसे हटकर बनाती है। वह है, इसकी विशेष प्रकार की खेती, जो कि केवल 50 वर्ग मीटर की रेतीली जमीन पर की जाती है। इसको उगाने के लिए खाद के तौर पर समुद्री शैवाल का उपयोग किया जाता है। पारंपरिक तौर पर अटलांटिक महासागर के लॉयर क्षेत्र के तट के फ्रांसीसी द्वीप नोइमोर्टियर पर इसका उत्पादन होता है। खेती के उपरांत आलू का चयन करने के लिए लगभग 2500 लोग सात दिन तक लगे रहते हैं।10,000 टन आलू की फसल में से केवल 100 टन ही ला बोनेटे उत्पादित होते हैं।

इस किस्म का आलू कैसा होता है ?

यदि हम ला बोनेटे के स्वाद पर नजर डालें तो इसमें नींबू के साथ नमक एवं अखरोट का भी स्वाद होता है, जो और किसी आलू के अंदर नहीं पाया जाता है। यह काफी मुलायम एवं नाज़ुक होते हैं। ऐसा कहा जाता है, कि इसको सामान्य तौर पर उबालकर ही निर्मित किया जाता है। इसको मक्खन और समुद्री नमक के साथ परोसा जाता है। यह आकार में काफी छोटे होते हैं। साथ ही, गोल्फ की गेंद के आकार से बड़े नहीं होते। वहीं, अगर इनके गूदे की बात करें, तो मलाईदार सफेद होता है। इस आलू की कीमत इसकी उपलब्धता के अनुरूप प्रति वर्ष होती है। परंतु, आज तक यह 50,000 से 90,000 रुपये प्रति किलो के बीच ही बिक्रय किया गया है।
Sweet Potato Farming: शकरकंद की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

Sweet Potato Farming: शकरकंद की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

शकरकंद की फसल को कंदीय वर्ग में स्थान दिया गया है। भारत में शकरकंद की खेती अपना प्रमुख स्थान रखती है। भारत में शकरकंद की खेत का क्षेत्रफल प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। किसान आधुनिक ढंग से शकरकंद की खेती कर के अच्छा उत्पादन कर बेहतरीन आमदनी कर रहे हैं। शकरकंद की खेती व्यापारिक दृष्टिकोण से भी बेहद फायदेमंद है। यदि आप शकरकंद की खेती करना चाहते हैं एवं शकरकंद की खेती के आधुनिक तरीके जानना चाहते हैं। तो यह आर्टिकल आपके लिए काफी मददगार साबित होगा। क्योंकि शकरकंद की खेती कब और कैसे की जाती है, इसके लिए उपयुक्त जलवायु, मिट्टी, खाद व उर्वरक क्या हैं। शकरकंद की खेती के लिए कितना पीएच मान होना चाहिए और शकरकंद की रोपाई कैसे करें आदि की जानकारी इस लेख में मिलेगी।

शकरकंद की फसल के लिए भूमि, जलवायु एवं उपयुक्त समय

शकरकंद की खेती से बेहतरीन पैदावार लेने के लिए समुचित जल निकासी वाली और कार्बनिक तत्वों से युक्त दोमट अथवा चिकनी दोमट भूमि सबसे अच्छी मानी गई है। शकरकंद की फसल का बेहतरीन उत्पादन लेने के लिए मिट्टी का पी. एच. 5.8 से 6.7 के मध्य होना चाहिए। शकरकंद की खेती के लिए शीतोष्ण और समशीतोष्ण जलवायु अनुकूल मानी जाती है। शकरकंद की खेती के लिए सर्वोत्तम तापमान 21 से 27 डिग्री के मध्य होना चाहिए। शकरकंद के लिए 75 से 150 सेंटीमीटर वर्षा अनुकूल मानी जाती है। यह भी पढ़ें: इस फसल की बढ़ती माँग से किसानों को होगा अच्छा मुनाफा शकरकंद की खेती मुख्यतः वर्षा ऋतु में जून से अगस्त में की जाती है। रबी के मौसम में अक्टूबर से जनवरी में सिंचाई के साथ की जाती है। उत्तर भारत में शकरकन्द की खेती रबी, खरीफ व जायद तीनों मौसम में की जाती है। खरीफ ऋतु में इसकी खेती सर्वाधिक की जाती है। खरीफ सीजन में 15 जुलाई से 30 अगस्त तक शकरकंद की लताओं को लगा देना चाहिए। सिंचाई की सुविधा सहित रबी (अक्टूबर से जनवरी) के मौसम में भी शकरकंद की खेती की जाती है। जायद ऋतुओं में, इसकी लताओं को लगाने का वक्त फरवरी से मई तक का होता है। इस मौसम में खेती का प्रमुख उद्देश्य लताओं को जीवित रखना होता है। जिससे कि खरीफ की खेती में उनका इस्तेमाल हो सके। लताओं के अतिरिक्त शकरकन्द के कन्द को लगाकर भी सुनहरी शकरकन्द की खेती की जा सकती है।

शकरकंद की उन्नत किस्में कौन-कौन सी होती हैं

गौरी- शकरकंद की इस किस्म को साल 1998 में इजात किया गया था। गौरी किस्म को तैयार होने में लगभग 110 से 120 दिन का समय लग जाता है। शकरकंद की इस किस्म के कंद का रंग बैंगनी लाल होता है। गौरी किस्म की शकरकंद से औसतन उत्पादन तकरीबन 20 टन तक हो जाती है। इस किस्म को खरीफ एवं रवी के मौसम में उत्पादित किया जाता है। श्री कनका- शकरकंद की श्री कनका किस्म को साल 2004 में विकसित किया गया था। इस किस्म के कन्द का छिलका दूधिया रंग का होता है। इसको काटने पर पीले रंग का गूदा नजर आता है। यह 100 से 110 दिन के समयांतराल में पककर तैयार होने वाली किस्म है। इस किस्म का उत्पादन 20 से 25 टन प्रति हेक्टेयर है। एस टी-13 - शकरकंद की इस किस्म का गूदा बैगनी काले रंग का होता है। जानकारी के लिए बतादें, कि कंद को काटने पर गूदा बिल्कुल चुकंदर जैसे रंग का नजर आता है। इस किस्म के अंदर बीटा केरोटिन की मात्रा जीरो होती है। लेकिन, एंथोसायनिन (90 मिली ग्राम प्रति 100 ग्राम) वर्णक की वजह से इसका रंग बैंगनी-काला होता है। साथ ही, मिठास भी काफी कम होती हैं। लेकिन, एंटीऑक्सीडेन्ट एवं आयु बढ़ाने के लिए अच्छी साबित होती है। यह 110 दिन की समयावधि में पककर तैयार हो जाती है। साथ ही, इसका उत्पादन 14 से 15 टन प्रति हैक्टर होता है। यह भी पढ़ें: जिमीकंद की खेती से जीवन में आनंद ही आनंद एस टी- 14 - शकरकंद की यह किस्म साल 2011 में इजात की गई थी। शकरकंद की इस किस्म के कंद का रंग थोड़ा पीला वहीं गूदे का रंग हरा पीला होता है। इस किस्म के अंदर उच्च मात्रा में वीटा केरोटिन (20 मिली ग्राम प्रति 30 ग्राम) विघमान रहता है। इस किस्म को तैयार होने में 110 दिन का वक्त लगता है। यदि इसकी उपज की बात की जाए तो वह 15 से 71 टन प्रति हेक्टेयर होती है। आज तक के परीक्षण में इस किस्म को सबसे अच्छा पाया गया है। सिपस्वा 2- शकरकंद की इस किस्म का उत्पादन अम्लीय मृदा में भी किया जा सकता है। इनमें केरोटिन की प्रचूर मात्रा होती है। शकरकंद की यह किस्म 110 दिन की समयावधि में पककर तैयार हो जाती है। इसकी उपज 20 से 24 टन प्रति हेक्टेयर है। इन किस्मों अतिरिक्त शकरकंद की और भी कई सारी किस्में जैसे कि - पूसा सफेद, पूसा रेड, पूसा सुहावनी, एच- 268, एस- 30, वर्षा और कोनकन, अशवनी, राजेन्द्र शकरकंद- 35, 43 और 51, करन, भुवन संकर, सीओ- 1, 2 और 3, और जवाहर शकरकंद- 145 और संकर किस्मों में एच- 41 और 42 आदि हैं। किसान भाई अपने क्षेत्र के अनुरूप किस्म का चयन करें।

शकरकंद की फसल में खरपतवारों की रोकथाम

शकरकंद की फसल में खरपतवार की दिक्कत ज्यादा नहीं होती है। वैसे खरपतवारों की समस्याएं आरंभिक दौर में ही आती हैं, जब लताएं पूरे खेत में फैली हुई नहीं रहती। यदि शकरकंद की लताओं का फैलाव पूरे खेत में हो जाता हैं, तो खरपतवार का जमाव नहीं हो पाता है। यदि खेत में कुछ खरपतवार उगते हैं, तो मिट्टी चढ़ाते वक्त उखाड़ फेंकने चाहिऐं।

शकरकंद की खेती के लिए खाद एवं उर्वरक

शकरकंद की खेती में कार्बनिक खाद् समुचित मात्रा में डालें, जिससे मृदा की उत्पादकता बेहतर व स्थिर बनी रहती है। केन्द्रीय कंद अनुसंधान संस्थान द्वारा संस्तुति की गई रिपोर्ट के अनुसार 5 से 8 टन सड़ी हुई गोबर की खाद खेत की पहली जुताई के दौरान ही भूमि में मिला देनी चाहिए। रासायनिक उर्वरकों में 50 किलोग्राम नाइट्रोजन और 25 किलोग्राम फॉस्फोरस तथा 50 किलोग्राम पोटाश की जरूरत प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करनी चाहिए। नाइट्रोजन की आधी मात्रा फॉस्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा शुरू में लता लगाने के दौरान ही जड़ों में देनी चाहिए। शेष नाइट्रोजन को दो भागों में बांटकर एक हिस्सा 15 दिन में दूसरा हिस्सा 45 दिन टाप ड्रेसिंग के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए। जानकारी के लिए बतादें, कि अत्यधिक अम्लीय जमीन में 500 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से चूने का इस्तेमाल कंद विकास के लिए बेहतर रहता है। इनके अतिरिक्त मैगनीशियम सल्फेट, जिंकसल्फेट और बोरॉन 25:15:10 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करने पर कन्द फटने की दिक्कत नहीं आती हैं। वहीं समान आकार के कन्द लगते हैं।
आलू बीज उत्पादन से होगा मुनाफा

आलू बीज उत्पादन से होगा मुनाफा

आलू को सब्ज़ियों का राजा माना जाता है। राजा इसलिए क्योंकि इसका अधिकांश सब्जियों में प्रयोग होता है।आलू उत्पादक प्रदेशों की बात करें तो उत्तर प्रदेश इसमें प्रमुख है। यहां के अलावा पश्चिम बंगाल, बिहार, गुजरात, पंजाब आसाम एवं मध्य प्रदेश में आलू की खेती होती है। आलू उत्पादन में यूपी का तकरीबन 40 प्रतिशत योगदान रहता है। यहां के किसान आलू की उन्नत खेती के लिए जाने जाते हैं लेकिन बीज उत्पादन के क्षेत्र में जो स्थान पंजाब के किसानों ने हासिल किया है वह यहां के किसान नहीं कर पाए हैं । अब जरूरत आलू के उत्पादन के साथ बीज उत्पादन के क्षेत्र में आगे बढ़ने की है। आलू की खेती मोटी लागत चाहती है। इसे सामान्य किसान नहीं कर सकते। बाजारू गिरावट की स्थिति में कई किसानों को मोटा नुकसान भी उठाना पड़ता है। नुकसान के झटके को कई किसान झेल भी नहीं पाते। यूंतो सामान्य तरीके से किसान बीज तैयार करते हैं इसे प्रमाणित कराकर बेचने की बात ही कुछ और है। बीज उत्पादन और आलू उत्पादन में मूलतः ज्यादा फर्क नहीं होता। इस लिए आलू उत्पादन के साथ किसान बीज उत्पादन को समझें और खुद के लिए बीज तैयार करना शुरू करें।   

   aloo 

 आलू की अभी तक करीब तीन दर्जन किस्में विकसित हो चुकी हैं। इनमें कई कम समय में तैयार होने वाली हाइब्रिड किस्में भी किसानों में खूब भा रही हैं। आलू भी दो तरह का होता है। सब्जी वाला और प्रसंस्करण के लिए उपयोग में आने वाला। 

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 सब्जी वाली किस्मों में कुफरी चंद्रमुखी किस्म 70 से 80 दिन में तैयार हो जाती है। इससे 200 से 250 कुंतल प्रति हैक्टेयर उत्पादन प्राप्त होता है। इसमें पछेती अंगमारी रोग आता है। कुफरी बहार जिसे 3797 नंबर दिया गया है, करीब 100 दिन में तैयार होती है और उपज 250 से 300 कुंतल मिलती है। इसे पक्का आलू माना जाता है। कुफरी अशोका अगेती किस्म है। यह संपूर्ण सिन्धु एवं गंगा क्षेत्र के लिए उपयुक्त है। अधिकतत 80 दिन में तैयार होकर 300 कुंतल तक उपज देती है। कुफरी बादशाह पकने में लम्बा समय लेती है। यह पछेती अंगमारी रोग रोधी है। जल्दी खुदाई करने पर भी अच्छा उत्पादन रहता है। अधिकतम 120 दिन में तैयार होकर 400 कुंतल तक उपज देती है। कुफरी लालिमा जल्दी तैयार होने वाली किस्म है। छिलका गुलाबी होता है। यह अगेती झुलसा रोग के लिए मध्यम अवरोधी है। 100 दिन में 300 कुंतल, कुफरी पुखराज 100 दिन में 400 कुंतल, कुफरी सिंदूरी 120 से 140 दिन में पकती है। यह मैदानी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त किस्म है। 400 कुंतल, कुफरी सतलुज 110 दिन में पकती है। सिंधु, गंगा मैदानी तथा पठारी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। उपज 300 कुंतल, कुुफरी आनंद 120 दिन में 400 कुंतल तक उपज देती है। आलू का उपयोग प्रसंस्करण इकाईयों में बहुत हो रहा है। चाहे आलू भुजिया हो, चिप्स या फिर पापड़ आदि। इसके लिए हिमाचल स्थित कुफरी संस्थान ने अन्य किस्में विकसित की हैं। इनमें प्रमुख रूप से कुफरी चिपसोना-1, 110 दिन में तैयार होकर 400 कुंतल तक उपज देती है। कुफरी चिपसोना-2 किस्म 110 दिन में तैयार होकर 350 कुंतल तक उपज देती है। 

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 कुफरी चिप्सोना-3, कुफरी सदाबहार, कुफरी चिप्सोना-4, कुफरी पुष्कर के पकने की अवधि 90 से 110 दिन है। कुफरी मोहन नई किस्म है। इनका उत्पादन भी 300 कुंतल से ज्यादा ही आता है। किस्मों की कमी नहीं और आलू की खेती जागरूक किसान ही ज्यादा करते हैं। उन्हें अपने इलाके के लिए उपयुक्त किस्मों की जानकारी रहती है। यह इस लिए भी आसान होता है क्योंकि किसान समूह में ही बीज खरीदकर लाते हैं और बेचने का काम भी समूह में होता है। 

आलू के बीज उत्पादन के लिए हर जनपद स्तर पर हर साल आधारीय बीज आता है। इस बीज के कट्टों पर सफेद रंगा का टैग लगा होता है। आधारीय बीज भी दो तरह का होता है आधारीय प्रथम एवं आधारीय द्वितीय। यदि किसानों को दो साल तक खुद के बीज को प्रयोग करना है तो आधारीय प्रथम बीज खरीदें। इससे पहले साल आधारीय द्वितीय बीज तैयार होता। अगले साल उस बीज से प्रमाणित बीज बनेगा। बीज तैयार करने के लिए फसल में 15 दिन पूर्व सिंचाई बंद कर देनी चाहिए। इसके अलावा माहू कीट फसल पर दिखने लगे तभी पाल को काटकर छोड़ देना चाहिए। बीज के लिए लगने वाले आलू की बिजाई समय से करनी चाहिए। पाल की कटाई थोड़ा जल्दी इस लिए की जाती ताकि कंद का आकार बड़ा नहो। बीज के आलू का आकार छोटा ही रखा जाता है। कई किसान पूरे समय में ही आलू को निकालते हैं। उसमें से सीड और खाने के लिए आलू को साइज के हिसाब से अलग-अलग छांट लेते हैं।

बीज की बेहद कमी

  aloo seed 

 देष में आलू के बीज की बेहद कमी है। बीज कोई भी हो उत्पादन आम फसल की तरह ही होता है लेकिन कीमतों में बहुुत अंतद होता है। गेहूं यदि फसल के समय 1500 रुपए कुंतल होता है तो छह माह बाद ही वह 3000 रुपए प्रति कुंतल बिकता है। यह बात आम बीजों की है। हाईब्रिड बीजों की कीमत तो लाखों लाख रुपए प्रति किलोग्राम तक होती है और इनका उत्पान सामान्य आदमी के बसका भी नहीं लेकिन आम किस्मों का बीज कोई भी तैयार कर सकता है। पंजीकरण जरूरी हर राज्य में बीज प्रमाणीकरण संस्था होती है। बीज उत्पादन के लिए कट्टों पर लगे टैग, बीज खरीद वाली संस्था की रषीद के आधार पर पंजीकरण कराया जा सकता है।

इस तरह करें अगेती आलू की खेती

इस तरह करें अगेती आलू की खेती

आज हम आपको जानकारी देने जा रहे है सब्जियों के "राजा साहब" आलू की. आलू एक ऐसी सब्जी है जो की किसी भी सब्जी के साथ मिल जाती है, आलू के व्यंजन भी बनाते है जिनकी गिनती करने लगो तो समय कम पड़ जाये. क्षेत्र के हिसाब से इसके भांति भांति के व्यंजन बनते हैं सब्जी के साथ साथ आलू की भुजिआ , नमकीन , जिप्स, टिक्की, पापड़, पकोड़े, हलुआ आदि. आलू एक ऐसी सब्जी है जब घर में कोई सब्जी न हो तो भी अकेले आलू की सब्जी या चटनी बनाई जा सकती है. सबसे खास बात ये किसान के लिए सबसे बर्वादी वाली फसल है और सबसे ज्यादा आमदनी वाली फसल भी है. सामान्यतः किसानों में एक कहावत प्रचलित है की आलू के घाटे को आलू ही पूरा कर सकता है. इससे इसकी अहमियत पता चलती है.

खेत की तैयारी:

किसी भी जमीन के अंदर वाली फसल के लिए खेत की मिटटी भुरभुरी होनी चाहिए जिससे की फसल को पनपने के लिए पर्याप्त जगह मिल सके, क्योकि किसी ठोस या कड़क मिटटी में वो पनप नहीं पायेगी. हमेशा आलू के खेत की मिटटी को इतना भुरभरा बना दिया जाता है की इसमें से कोई भी आदमी दौड़ के पार न कर सके. इसका मतलब इसको बहुत ही गहराई के साथ जुताई की जाती है. अभी का समय आलू के खेत को तैयार करने का सही समय है. सबसे पहले हमको खेत में बनी हुई
गोबर की खाद दाल देनी चाहिए और खाद की मात्रा इतनी होनी चाहिए जिससे की खेत की मिटटी का रंग बदल जाये, कहने का तात्पर्य है की अगर हमें 100 किलो खाद की जरूरत है तो हमें इसमें 150 किलो खाद डालना चाहिए इससे हमें रासायनिक खाद पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा और हमारा आलू भी अच्छी क्वालिटी का पैदा होगा.

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आलू की बुबाई से पहले खेत में जिंक आदि मिलाने की सोच रहे हैं तो पहले मिटटी की जाँच कराएं उसके बाद जरूरत के हिसाब से ही जिंक या पोटाश मिलाएं. ऐसा न करें की आपका पडोसी क्या लाया है वही आप भी जाकर खरीद लाएं किसी भी दुकानदार के वाहकावें में न आएं. आप जो भी पैसा खर्च करतें है वो आपकी खून पसीने की कमाई होती है. किसी को ऐसे ही न लुटाएं.

अगेती आलू की खेती का समय:

अगेती आलू की खेती का समय क्षेत्र के हिसाब से अलग अलग होता है. इसको लगाने के समय मौसम के हिसाब से होता है. इसको विकसित होने के लिए हलकी ठण्ड की आवश्यकता होती है. अगर हम उत्तर भारत की बात करें तो ध्यान रहे की इसकी फसल दिसंबर तक पूरी हो जानी  चाहिए. इसकी बुवाई लगभग सितम्बर/अक्टूबर में शुरू हो जाती है. आलू दो तरह का बोया जाता है एक फसल इसकी कोल्ड स्टोरेज में रखी जाती है उसकी खुदाई फरबरी और मार्च में होती है और जो कच्ची फसल होती है उसको स्टोर नहीं किया जा सकता उसकी खुदाई दिसंबर में हो जाती है. सितम्बर से कच्चा आलू देश के अन्य हिस्सों से आना शुरू हो जाता है.

जमीन और मौसम:

आलू के लिए दोमट और रेतीली मिटटी ज्यादा मुफीद होती है, याद रखें की पानी निकासी की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए जिससे की आलू के झोरा के ऊपर पानी न जा पाए. आलू में पानी भी कम देना होता है जिससे की उसके आस पास की मिटटी गीली न हो बस उसको नीचे से नमी मिलती रहे. जिससे की आलू को फूलने में कोई भी अवरोध न आये. आलू पर पानी जाने से उसके ऊपर दाग आने की संभावना रहती है, तो  आलू में ज्यादा पानी देने से बचना चाहिए.

अगेती आलू की खेती के बीज का चुनाव:

  • किसी भी फसल के लिए उसके बीज का चुनाव सबसे महत्वपूर्ण होता है. आलू में कई तरह के बीज आते हैं इसकी हम आगे बात करेंगें.आलू के बीज के लिए कोशिश करें की नया बीज और रोगमुक्त बीज प्रयोग में लाएं. इससे आपके फसल की पैदावार के साथ साथ आपकी पूरे साल की मेहनत और मेहनत की कमाई दोनों ही दाव पर लगे होते हैं.
  • कई बार आलू के बीज की प्रजाति उसके क्षेत्र के हिसाब से भी बोई जाती है. इसके लिए अपने ब्लॉक के कृषि अधिकारी से संपर्क किया जा सकता है या जो फसल अच्छी पैदावार देती है उसका भी प्रयोग कर सकते हैं. ज्यादा जानकारी के लिए आप हमें लिख सकते हैं.
  • आलू का बीज लेते समय ध्यान रखें रोगमुक्त और बड़ा साइज वाला आलू प्रयोग करें, लेकिन ध्यान रहे की बीज इतना भी महगा न हो की आपकी लागत में वृद्धि कर दे. ज्यादातर देखा गया है की छोटे बीज में ही रोग आने की संभावना ज्यादा होती है.


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बुवाई का तरीका:

वैसे तो आजकल आलू बुबाई की अतिआधुनिक मशीनें आ गई है लेकिन बुवाई करते समय ध्यान रखना चाहिए की लाइन में पौधे से पौधे की दूरी 20 से 25 सेंटीमीटर होनी चाहिए और झोरा से झोरा की दूरी 50 सेंटीमीटर होनी चाहिए. इससे से पौधे को भरपूर रौशनी मिलती है और उसे फैलाने और फूलने के लिए पर्याप्त रोशनी और हवा मिलती है. पास पास पौधे होने से आलू का साइज छोटा रहता है तथा इसमें रोग आने की संभावना भी ज्यादा होती है. [video width="640" height="352" mp4="https://www.merikheti.com/assets/post_images/m-2020-08-aloo-1.mp4" autoplay="true" preload="auto"][/video]

खाद का प्रयोग:

  • जैसा की हम पहले बता चुके हैं की आलू के खेत में बानी हुई गोबर की खाद डालनी चाहिए इससे रासायनिक खादों से बचा जा सकता है.
  • पोटाश 50 से 75 किलो और जिंक ७.५  पर एकड़ दोनों को मिक्स कर लें और 50 किलो पर एकड़ यूरिया मिला के खेत में बखेर दें, और DAP खाद 200 किलो एकड़ खेत में डाल के ( जिंक और DAP को न मिलाएं) ऊपर से कल्टिवेटर से जुताई करके पटेला/साहेल/सुहागा लगा दें.उसके बाद आलू की बुबाई कर सकते है. इसके 25 दिन बाद हलकी सिचाईं करें उसके बाद यूरिआ 50 से 75 किलो पर एकड और 10 किलो पर एकड़  जाइम मिला कर बखेर दें. पहले पानी के बाद फपूँदी नाशक का स्प्रे करा दें.

मौसम से बचाव:

इसको पाले से पानी के द्वारा ही बचाया जा सकता है. जब भी रात को पाला पड़े तो दिन में आपको पानी लगाना पड़ेगा. ज्यादा नुकसान होने पर 5 से 7 किलो पर एकड़ सल्फर बखेर दें जिससे जाड़े का प्रकोप काम होगा.

आलू की प्रजाति:

3797, चिप्सोना, कुफऱी चंदरमुखी, कुफरी अलंकार, कुफरी पुखराज, कुफरी ख्याती, कुफरी सूर्या, कुफरी अशोका, कुफरी जवाहर, जिनकी पकने की अवधि 80 से 100 दिन है
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सन 2015 से 2022 तक भारत में आलू (Potato) का उत्पादन लगभग 45 मिलियन मैट्रिक टन से 55 मिलीयन मेट्रिक टन के बीच में रहा है। भारत में उगने वाले कुल आलू में उत्तर प्रदेश का योगदान सर्वाधिक रहता है और वर्तमान में भारत विश्व में दूसरा सबसे बड़ा आलू उत्पादक देश है। बढ़ती मांग के मद्देनजर आलू उत्पादन की वृद्धि दर को बढ़ाने के लिए कई नए वैज्ञानिक तरीके बाजार में लोकप्रिय हो रहे हैं, जिनमें हाइड्रोपोनिक (Hydroponics method) अथार्त पानी की मदद से आलू उगाना और परंपरागत तरीके से उत्पादन की पुरानी हो चुकी तकनीकों से हटकर एक काफी लोकप्रिय हो रही है, जिसे एयरोपोनिक्स आलू फार्मिंग (Aeroponics Potato Farming) के नाम से जाना जाता है।


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एयरोपोनिक्स आलू फार्मिंग

इस तकनीक में आलू उगाने के लिए जमीन की आवश्यकता नहीं होती है और केवल हवा की मदद से ही आलू की पौध का उत्पादन किया जा सकता है। भारत में एयरोपोनिक्स तकनीक का सबसे पहले इस्तेमाल करनाल जिले में स्थित आलू प्रौद्योगिकी केंद्र (Potato Technology Centre) के द्वारा किया गया था। [caption id="attachment_10777" align="alignnone" width="1032"]एयरोपोनिक्स आलू फार्मिंग (Aeroponics Potato Farming) एयरोपोनिक्स आलू फार्मिंग (Aeroponics Potato Farming) (Source: Potato Technology Centre, Shamgarh, Karnal)[/caption] एयरोपोनिक्स तकनीक से मिल रहे परिणामों से यह सामने आया है कि परंपरागत आलू उत्पादन विधि की तुलना में इस नई वैज्ञानिक विधि की मदद से 6 गुना तक अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है, कृषि अनुसंधान केंद्र से जुड़े कई वैज्ञानिक उत्पादन की इस क्षमता का समर्थन भी कर चुके हैं। पूसा कृषि विज्ञान केंद्र से जुड़े वैज्ञानिक बताते हैं कि कई बार नए किसान भाइयों को इस तकनीक को समझाने में बहुत तकलीफ होती है, क्योंकि उन्हें विश्वास ही नहीं होता कि आखिर कैसे बिना मिट्टी और जमीन के भी आलू का उत्पादन किया जा सकता है। भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय के तहत बनी एक समिति ने भी इस तकनीक से पर्यावरण पर होने वाले प्रभावों की जांच कर इसे मंजूरी प्रदान कर दी है।


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क्या है एयरोपोनिक्स तकनीक और इससे जुड़ी वैज्ञानिक समझ ?

वर्तमान में लोकप्रिय एयरोपोनिक्स तकनीक में पौधे को ठंडे इलाकों में स्थित वातावरण में उगाया जाता है। इस तकनीक में आलू को उगाने के लिए मिट्टी और सूर्य के प्रकाश की आवश्यकता नहीं पड़ती है। सबसे पहले बड़े-बड़े बॉक्स में पौधे को लटका दिया जाता है और ऊपर के क्षेत्र को पूरी तरह ढक दिया जाता है इसके बाद प्रत्येक बॉक्स में सूक्ष्म पोषक तत्व डाले जाते हैं, एक बार पोषक तत्वों की मात्रा पूरी हो जाने के बाद थोड़ा बहुत पानी का स्त्राव भी किया जाता है, हालांकि पानी के छिड़काव के दौरान ध्यान रखें कि केवल इतना ही पानी डालें, जिससे कि पौधे की जड़ों में थोड़ी बहुत नमी बनी रहे। एयरोपोनिक्स आलू फार्मिंग (Seed Potato Crop in Aerophonics at PTC Shamgarh Karnal; Source: Potato Technology Centre, Shamgarh, Karnal) मिट्टी और भूमि की कमी होने वाले इलाकों में भी इस तकनीक का इस्तेमाल कर बढ़ती जनसंख्या की मांग को पूरा किया जा सकता है, इसके अलावा शहरों में रहने वाले लोग भी इस तकनीक से किसानी का अनुभव प्राप्त कर सकते हैं। नियंत्रित तापमान और आद्रता की स्थिति में इस्तेमाल आने वाली एयरोपोनिक्स तकनीक, किसानों को परंपरागत विधि से तैयार तकनीक से भी अच्छी गुणवत्ता वाले उत्पाद उपलब्ध करवा सकती है। कम पोषक तत्व और पानी के कम इस्तेमाल के बाद भी इस विधि से उत्पादन तो बढ़ता ही है, साथ ही उर्वरक और मजदूरी जैसे दूसरे प्रकार के खर्चों में अच्छी खासी कमी देखने को मिलती है। वैज्ञानिक शोध के अनुसार परंपरागत तरीके से एक किलो आलू उत्पादन करने के लिए लगभग 200 लीटर पानी की आवश्यकता होती है, जबकि एयरोपोनिक्स तकनीक में एक किलोग्राम आलू उत्पादन के लिए केवल 7 से 10 लीटर पानी पर्याप्त रहता है। इस तकनीक का इस्तेमाल कर रहे किसान भाइयों को ध्यान रखना होगा कि आलू के उत्पादन के दौरान पॉलीघर या पॉलीहाउस (Polyhouse) का इस्तेमाल जरूर करें। पोली हाउस आपके प्लांट को ऊपर से ढकने के लिए इस्तेमाल में आने वाली पॉलीथिन से बनाया गया एक ढांचा होता है, जो मुख्यतः तापमान नियंत्रण का काम करता है।


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वर्तमान में भारत के किन क्षेत्रों में हो रहा है एयरोपोनिक्स आलू उत्पादन ?

प्लास्टिक शीट में छेद करके एयरोपोनिक्स विधि से उत्पादन की तकनीक का इस्तेमाल भारत के उत्तरी क्षेत्र में स्थित हरियाणा और पंजाब के राज्य में पिछले कुछ सालों से किया जा रहा है। इसके अलावा हाल ही में पूसा के वैज्ञानिकों ने उत्तर प्रदेश और असम के क्षेत्रों के अलावा हिमालय पर्वत से जुड़े हुए बर्फीले क्षेत्रों में भी इस तकनीक का इस्तेमाल कर अच्छा खासा उत्पादन किया है। हिमालयी राज्यों में एक बॉक्स बनाकर पौधे की जड़ लटका दी जाती है और पोषक तत्वों का छिड़काव करते हुए तब तक पानी दिया जाता है, जब तक इन जड़ों में आलू लगना शुरू नहीं हो जाता है। एक बार आलू की वृद्धि हो जाने पर बॉक्स को खोल कर तैयार आलू को अलग कर लिया जाता है।

एयरोपोनिक्स तकनीक से आलू से होने वाला उत्पादन :

कृषि वैज्ञानिकों की राय में कम समय में ही एक यूनिट क्षेत्र में केवल 20 हज़ार आलू के पौधे लगाकर 6 लाख बीज तैयार किए जा सकते हैं। इस तकनीक की मदद से किसान आसानी से परंपरागत खेती की अपेक्षा अधिक मुनाफा कमा सकते हैं। अंतरराष्ट्रीय आलू केंद्र (International Potato Centre) के अनुसार भारत में इस तकनीकी का भविष्य काफी उज्ज्वल दिखाई दे रहा है। हाल ही में कृषि मंत्रालय भी स्थानीय राज्य सरकारों के साथ मिलकर इस तकनीक के प्रसार की नीतियां बना रहा है। वैज्ञानिकों की राय में एक बार इसका सेटअप किए जाने के बाद तो मुनाफा कमाना आसान है, हालांकि इसकी शुरुआत करना काफी खर्चीली साबित हो सकती है। हवा में आलू उगाने की ऐरोपोनिक्स विधि (aeroponics potato farming in hindi) गार्डनिंग का अनुभव रखने वाले किसान भाई इस तकनीक का अच्छे से इस्तेमाल कर सकते हैं, क्योंकि उन्हें पोली हाउस का इस्तेमाल कर गार्डनिंग करने का अनुभव पहले से ही हासिल है। हाल ही में पश्चिमी राजस्थान और गुजरात के कच्छ जिले के कुछ इलाकों में पानी की कमी होने की वजह से किसानों को एयरोपोनिक्स तकनीक के इस्तेमाल के लिए आलू के अच्छे बीज प्रदान किए गए हैं। भारत सरकार तथा स्थानीय राज्य सरकार किसानों की आय दोगुनी करने के अपने प्रयास में इस तकनीक का सहारा लेकर जल्द ही कम सिंचाई वाले क्षेत्रों में भी बेहतर उत्पादन करने के लिए कमर कस चुकी है।


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सामान्यतः पूछे जाने वाले सवाल (FaQs) :

सवाल - क्या राज्य या केंद्र सरकार एयरोपोनिक्स फार्मिंग के लिए किसी प्रकार की सहायता उपलब्ध करवाती है ?

जवाब :- हाल ही में कृषि मंत्रालय ने एयरोपोनिक्स प्रोजेक्ट के लिए 'कमर्शियल हॉर्टिकल्चर डेवलपमेंट स्कीम' (Commercial Horticulture Development Scheme) के तहत किसानों को प्रोजेक्ट शुरु करने के लिए लगे सम्पूर्ण खर्चे की 20% तक की सब्सिडी उपलब्ध करवाने की घोषणा की है। हालांकि इस विधि से उगाई जा रही अलग-अलग फसलों के लिए सब्सिडी की मात्रा अलग-अलग होती है, इसकी अधिक जानकारी आप अपने राज्य सरकार के कृषि मंत्रालय की वेबसाइट या अपने आसपास स्थित किसी कृषि विज्ञान केंद्र से जाकर प्राप्त कर सकते हैं।

सवाल - क्या एयरोपोनिक्स फार्मिंग करने के लिए किसी लाइसेंस की आवश्यकता होती है ?

जवाब - वैसे तो किसानों को एयरोपोनिक्स विधि से किसी भी प्रकार की फसल उगाने के लिए किसी विशेष लाइसेंस की आवश्यकता तो नहीं होती है, परंतु फिर भी पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव और फर्टिलाइजर के अधिक इस्तेमाल जैसी बातों को ध्यान रखते हुए कुछ विशेष प्रकार के लाइसेंस लेने की जरूरत पड़ सकती है, इसके लिए अलग-अलग राज्य सरकारों ने अपनी अलग गाइडलाइंस जारी की हुई है।

सवाल - क्या इस विधि से तैयार आलू लंबे समय तक स्टोर किए जा सकते हैं ?

जवाब - जी हां ! एयरोपोनिक्स विधि से तैयार आलू  की स्टोर करने की क्षमता परम्परागत विधि से तैयार आलू से अधिक होती है और इन्हें लंबे समय तक बिना खराब हुए बिना कोल्ड स्टोरेज के संचित किया जा सकता है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अनुसार इस विधि से तैयार आलू में पोषक तत्वों की मात्रा भी अधिक होती है और इन्हें खाने से शरीर का बेहतर विकास हो सकता है। आशा करते हैं कि हमारे किसान भाइयों को Merikheti.com के द्वारा परंपरागत विधि की तुलना में एयरोपोनिक्स विधि से आलू उत्पादन करने की संपूर्ण विधि की जानकारी मिल गई होगी और खास तौर पर कम बारिश वाली जगहों पर रहने वाले किसान भाई, आसानी से इस विधि का इस्तेमाल कर मध्यम वर्ग की मांग की पूर्ति के अलावा स्वयं भी अच्छा खासा मुनाफा कमा पाएंगे।
किसान नवीन तकनीक से उत्पादन कर आलू, मूली और भिंडी से कमाएं बेहतरीन मुनाफा

किसान नवीन तकनीक से उत्पादन कर आलू, मूली और भिंडी से कमाएं बेहतरीन मुनाफा

फिलहाल मंडी में आलू, भिंडी एवं मूली का समुचित भाव प्राप्त करने के लिए काफी मशक्क्त करनी होती है। अगर किसान नई तकनीक और तरीकों से कृषि करते हैं, तो वह अपनी पैदावार को अन्य देशों में भी भेज करके बेहतरीन मुनाफा अर्जित कर सकते हैं। वर्तमान दौर में खेती-किसानी ने आधुनिकता की ओर रुख कर लिया है, जिसकी वजह से किसान अपने उत्पादन से मोटी आमदनी भी करते हैं। किसानों को यह बात समझने की बहुत जरूरत है, कि पारंपरिक तौर पर उत्पादन करने की जगह किसान विज्ञान व वैज्ञानिकों की सलाह के अनुसार खेती करें। क्योंकि किसानों की इस पहल से वह कम खर्च करके अच्छा मुनाफा अर्जित कर सकते हैं, साथ ही, किसानों को नवाचार की अत्यंत आवश्यकता है। अगर न्यूनतम समयावधि के अंतर्गत किसान कृषि जगत में प्रसिद्धि एवं धन अर्जित करना चाहते हैं तो किसानों को बेहद जरूरत है कि वह नवीन रूप से कृषि की दिशा में अग्रसर हों। किसान उन फसलों का उत्पादन करें जो कि बाजार में अपनी मांग रखते हैं साथ ही उनसे अच्छा लाभ भी मिल सके। किसान हरी भिंडी की जगह लाल भिंडी, सफेद मूली के स्थान पर लाल मूली एवं पीले आलू की बजाय नीले आलू का उत्पादन करके किसान अपना खुद का बाजार स्थापित कर सकते हैं। इस बहुरंगी कृषि से किसान बेहद मुनाफा कमा सकते हैं। इसकी वजह यह है, कि इन रंग बिरंगी सब्जियों की मांग बाजार में बहुत ज्यादा रहती है। परंतु फिलहाल भारत में भी सब्जियां केवल खाद्यान का माध्यम नहीं है, वर्तमान में इनकी बढ़ती मांग से किसान सब्जियों को विक्रय कर बहुत मोटा लाभ कमा सकते हैं। इसके अतिरिक्त भी लाल भिंडी में कैल्शियम, जिंक एवं आयरन जैसे तत्व प्रचूर मात्रा में पाए जाते हैं। ऐसे बहुत सारे गुणों से युक्त होने की वजह से बाजार में इस भिंडी का भाव 500 रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से अर्जित होता है। यह साधारण सी फसल आपको बेहतरीन मुनाफा प्रदान कर सकती है।
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नीले आलू के उत्पादन से कमाएं मुनाफा

हम सब इस बात से भली भांति परिचित हैं, कि आलू की फसल को सब्जियों का राजा कहा जाता है। इसलिए आलू प्रत्येक रसोई में पाया जाता है, आजतक आपने सफेद या पीले रंग के बारे में सुना होगा और खाए भी होंगे। परंतु फिलहाल बाजार में आपको नीले रंग का आलू भी देखने को मिल जायेगा, बहुत सारे पोषक तत्वों से युक्त है। केंद्रीय आलू अनुसंधान संस्थान, मेरठ के वैज्ञानिकों ने नीले रंग के आलू की स्वदेशी किस्म को विकसित कर दिया है। इस किस्म को कुफरी नीलकंठ के नाम से जाना जाता है, इस आलू में एंथोसाइनिल एवं एंटी-ऑक्सीडेंट्स भी पाए जाते हैं। एक हैक्टेयर में नीले आलू की बुवाई करने के उपरांत किसान 90 से 100 दिन की समयावधि में तकरीबन 400 क्विंटल तक पैदावार प्राप्त कर सकते हैं। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में नीला आलू दोगुने भाव में विक्रय हो बिकता है, इस अनोखी सब्जी के उत्पादन से पूर्व मृदा परीक्षण करके कृषि वैज्ञानिकों से सलाह-जानकारी ले सकते हैं।

लाल मूली के उत्पादन से होगा लाभ

मूली एक ऐसी फसल है,जो कि सभी को बहुत पसंद आती है। मूली का उपयोग घर से लेकर ढाबे तक सलाद के रूप में किया जाता है। परंतु वर्तमान दौर में अन्य सब्जियों की भाँति मूली का रंग भी परिवर्तित हो गया है। आपको बतादें कि आजकल बाजार में लाल रंग की मूली भी उपलब्ध है। लाल रंग की मूली का उत्पादन सर्दियों के दिनों में किया जाता है। जल-निकासी हेतु अनुकूल बलुई-दोमट मिट्टी लाल मूली के उत्पादन हेतु सबसे बेहतरीन मानी जाती है। किसान नर्सरी में भी लाल मूली की पौध को तैयार कर इससे अच्छा खासा मुनाफा कमा सकते हैं। मूली कतारों में उत्पादित की जाती है। इसकी 40 से 60 दिनों के अंदर किसान कटाई कर सकते हैं, जिससे 54 क्विंटल तक उत्पादन लिया जा सकता है। साधारण-सफेद मूली का बाजार में भाव 50 रुपये प्रति किलोग्राम होता है। परंतु देश-विदेश में लाल रंग की मूली का भाव 500 से 800 रुपये किलोग्राम है।
बिहार के वैज्ञानिकों ने विकसित की आलू की नई किस्म

बिहार के वैज्ञानिकों ने विकसित की आलू की नई किस्म

बिहार के लखीसराय में कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों ने आलू की एक नई किस्म विकसित की है। आलू की इस किस्म को "पिंक पोटैटो" नाम दिया गया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि आलू की इस किस्म में अन्य किस्मों की अपेक्षा रोग प्रतिरोधक क्षमता ज्यादा है। साथ ही आलू की इस किस्म में बरसात के साथ शीतलहर का भी कोई खास असर नहीं पड़ेगा। फिलहाल इसकी खेती शुरू कर दी गई है। वैज्ञानिकों को इस किस्म में अन्य किस्मों से ज्यादा उपज मिलने की उम्मीद है।

आलू की खेती के लिए ऐसे करें खेत का चयन

ऐसी जमीन जहां पानी का जमाव न होता हो, वहां
आलू की खेती आसानी से की जा सकती है। इसके लिए दोमट मिट्टी सबसे ज्यादा उपयुक्त मानी जाती है। साथ ही ऐसी मिट्टी जिसका पीएच मान 5.5 से 5.7 के बीच हो, उसमें भी आलू की खेती बेहद आसानी से की जा सकती है।

खेती की तैयारी

आलू लगाने के लिए सबसे पहले खेत की तीन से चार बार अच्छे से जुताई कर दें, उसके बाद खेत में पाटा अवश्य चलाएं ताकि खेत की मिट्टी भुरभुरी बनी रहे। इससे आलू के कंदों का विकास तेजी से होता है।

आलू कि बुवाई का समय

आलू मुख्यतः साल में दो बार उगाया जाता है। पहली बार इसकी बुवाई जुलाई माह में की जाती है, इसके बाद आलू को अक्टूबर माह में भी बोया जा सकता है। बुवाई करते समय किसान भाइयों को ध्यान रखना चाहिए कि बीज की गोलाई 2.5 से 4 सेंटीमीटर तक होना चाहिए। साथ ही वजन 25 से 40 ग्राम होना चाहिए। बुवाई करने के पहले किसान भाई बीजों को अंकुरित करने के लिए अंधरे में फैला दें। इससे बीजों में अंकुरण जल्द होने लगता है। इसके बाद स्वस्थ्य और अच्छे कंद ही बुवाई के लिए चुनना चाहिए। ये भी पढ़े: हवा में आलू उगाने की ऐरोपोनिक्स विधि की सफलता के लिए सरकार ने कमर कसी, जल्द ही शुरू होगी कई योजनाएं आलू की बुवाई कतार में करनी चाहिए। इस दौरान कतार से कतार की दूरी 60 सेंटीमीटर होनी चाहिए जबकि पौधे से पौधे की दूरी 20 सेंटीमीटर होनी चाहिए।

आलू की फसल में सिंचाई

आलू की खेती में सिंचाई की जरूरत ज्यादा नहीं होती। ऐसे में पहली सिंचाई फसल लगने के 15 से 20 दिनों के बाद करनी चाहिए। इसके बाद 20 दिनों के अंतराल में थोड़ी-थोड़ी सिंचाई करते रहें। सिंचाई करते वक्त ध्यान रखें कि फसल पानी में डूबे नहीं।

आलू की खुदाई

आलू की फसल 90 से लेकर 110 दिनों के भीतर तैयार हो जाती है। फसल की खुदाई के 15 दिन पहले सिंचाई पूरी तरह से बंद कर देनी चाहिए। खुदाई से 10 दिन पहले ही आलू की पतियों को काट दें। ऐसा करने से आलू की त्वचा मजबूत हो जाती है। खुदाई करने के बाद आलू को कम से कम 3 दिन तक किसी छायादार जगह पर खुले में रखें। इससे आलू में लगी मिट्टी स्वतः हट जाएगी।
इस किस्म के आलू की कीमत जानकर हैरान हो जाएंगे आप

इस किस्म के आलू की कीमत जानकर हैरान हो जाएंगे आप

आलू का सेवन प्रत्येक देश में किया जाता है। लेकिन, बहुत सारे स्थानों पर इसका भाव कम वहीं बहुत सारे स्थानों पर थोड़ा ज्यादा होता है। अब आलू की एक किस्म के आलू की काफी कीमत है। भारत आलू की पैदावार करने को लेकर विश्व में अपना अहम स्थान रखता है। आलू का उत्पादन करके देश के किसान भी बेहतरीन आमदनी करते हैं। केंद्र और राज्य सरकार भी कृषकों को आलू की खेती करने हेतु प्रोत्साहित करती हैं। किसान भी बेहतरीन किस्म के बीजों का चयन करके बेहतरीन आमदनी किया करते हैं। उनका यही प्रयास करते हैं, कि उनको बेहतरीन आमदनी मिल जाए। भारत में आलू के भाव बहुत सस्ती होती है। बतादें, कि कभी 5 रुपये किलो तो अधिक से अधिक कई बार 50 रुपये प्रति किलो तक हो जाता है। परंतु, कुछ आलू की ऐसी भी किस्म है, जिसकी कीमत जानकर आप हैरान हो जाओगे।

सोने के भाव की बराबरी करता है इस आलू का दाम

आलू की विभिन्न प्रकार की किस्मे हैं। परंतु, आज आपको जिस आलू के भाव के बारे में बताने जा रहे हैं। उसको जानकर कोई भी हैरान हो जाएगा। इस आलू की कीमत में कोई भी व्यक्ति सुगमता से हाइटेक मोबाइल, टीवी और फ्रिज जैसे उत्पाद खरीद सकते हैं। लोग सोने के आभूषण निर्मित करने का स्वयं भी देख सकते हैं। ये भी पढ़े: इस राज्य ने 40 टन आलू को ओमान निर्यात किया, आलू की एमएसपी भी निर्धारित की गई

आलू की इस किस्म का क्या नाम है

आलू की इस किस्म का नाम अपने भाव की वजह से काफी ज्यादा चर्चा में रहता है। इसका किस्म का नाम Le Bonnotte है . इसकी विशेष बात यह है, कि यह मात्र 10 दिनों के लिए ही बाजार में उपस्थित है। फिर भी लोग बहुत अधिक खर्च करने के बावजूद भी आलू नहीं मिल पाता।

इतना महंगा क्यों होता है यह आलू

फ्रांस में Ile de Noirmoutier नाम का एक द्वीप स्थिति है। यही पर Le Bonnotte आलू का उत्पादन किया जाता है। आप यह यह अनुमान लगा सकते हैं, कि मात्र 50 वर्गमीटर के खेत में ही इस प्रकार की खेती की जाती है। जनवरी माह के अंतर्गत Le Bonnotte की बुवाई करने के उपरांत इसकी खुदाई में 5 माह का वक्त लगता है। इसकी बेहतरीन ढंग से खेती में उर्वरक के तौर पर इसमें समुद्री शैवाल का इस्तेमाल किया जाता है। खाने में इसका स्वाद थोड़ा नमकीन होता है। सामान्यतः इसका उपयोग औषधीय रूप से किया जाता है। ये भी पढ़े: सीवीड की खेती के लिए आई नई तकनीक, सरकार से भी मिलेगी सहायता

Le Bonnotte आलू दुनिया का सर्वाधिक महंगा आलू है।

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि आलू का उत्पादन करने के कई सारे फायदे होते हैं। क्योंकि, इसका इस्तेमाल सामान्य तौर पर सूप, सलाद और क्रीम के रूप में किया जाता है। भारत में एक तोले स्वर्ण का भाव लगभग 50 से 60 हजार रुपये के मध्य होता है। इस आलू को ट्रेड इंडिया पर 56020 रुपये प्रति किलोग्राम की कीमत के अनुसार बेचा गया है। बाकी अन्य किसी आलू की इतनी ज्यादा कीमत पर आलू की बिक्री होने का कोई समाचार नहीं है। ऐसी हालत में Le Bonnotte ही दुनिया का सर्वाधिक महंगा आलू माना जाता है।
Potato farming: आलू की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

Potato farming: आलू की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि उपज देने वाली आलू की किस्मों की समय से बोआई संतुलित मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग समुचित कीटनाशक उचित जल प्रबंधन के जरिये आलू का अधिक उत्पादन कर अपनी आय बढ़ाई जा सकती है। आलू एक प्रमुख नगदी फसल है। प्रत्येक परिवार में यह किसी न किसी रूप में उपयोग किया जाता है। इसमें स्टार्च, प्रोटीन, विटामिन-सी एवं खनिज लवण भरपूर मात्रा में विघमान रहते हैं। बतादें, कि अत्यधिक उत्पादन देने वाली प्रजातियों की समय से बुवाई, संतुलित मात्रा में उर्वरकों का इस्तेमाल, समुचित कीटनाशक, बेहतर जल प्रबंधन के माध्यम से आलू की ज्यादा पैदावार कर अपनी आमदनी बढ़ाई जा सकती है।

आलू की खेती के लिए मृदा एवं किस्में

आलू की खेती के लिए जीवांश की भरपूर मात्रा से युक्त दोमट एवं बलुई दोमट मृदा को उपयुक्त माना जाता है। मध्य समय की प्रजातियां - कुफरी लालिमा, कुफरी बहार, कुफरी पुखराज, कुफरी अरुण इत्यादि को नवंबर के पहले सप्ताह में बुवाई करने से अच्छी पैदावार होती है। विलंभ से बोने के लिए कुफरी सिंदूरी, कुफरी देवा और कुफरी बादशाह आदि की नवंबर के आखिरी सप्ताह तक बुवाई जरूर कर देनी चाहिए। यह भी पढ़ें: इस तरह करें अगेती आलू की खेती

आलू की बुवाई एवं खेत की तैयारी इस प्रकार करें

आलू एक शीतकालीन फसल है। इसके जमाव और शुरू की बढ़वार के लिए 22 से 24 डिग्री सेल्सियस और कंद के विकास के लिए 18 से 20 डिग्री सेल्सियस तापमान की आवश्यकता होती है। खेत की तैयारी हेतु तीन से चार गहरी जुताई करके मृदा को बेहतर तरीके से भुरभुरी बना लें और बुवाई से पूर्व प्रति एकड़ 55 किलो यूरिया, 87 किलो डीएपी अथवा 250 किलो सिंगल सुपर फास्फेट व 80 किलो एमओपी को मृदा में मिला दें।

आलू की खेती से अच्छी पैदावार लेने के लिए खाद का उपयोग

आज हम आपको आलू की खेती में खाद के विषय में जानकारी देंगे। आलू की बुवाई के 30 दिन पश्चात 45 किलो यूरिया खेत में डाल दें। खेत की तैयारी के दौरान 100 किलो जिप्सम प्रति एकड़ उपयोग करने से परिणाम मिलते हैं। शीतगृह से आलू निकालकर सात-आठ दिन छाया में रखने के पश्चात ही बोआई करें। अगर आलू आकार में बड़े हों तो उन्हें काटकर बुवाई करें। परंतु, आलू के प्रत्येक टुकड़े का वजन 35-40 ग्राम के आसपास रहे। प्रत्येक टुकड़े में कम से कम 2 स्वस्थ आंखें होनी चाहिए। इस तरह प्रति एकड़ के लिए 10 से 12 क्विंटल कंद की जरूरत पड़ेगी। यह भी पढ़ें: आलू की पछेती झुलसा बीमारी एवं उनका प्रबंधन बुवाई से पूर्व कंद को तीन फीसद बोरिक एसिड अथवा पेंसीकुरान (मानसेरिन), 250मिली/आठ क्विंटल कंद या पेनफ्लूफेन (इमेस्टो), 100 मिली/10 क्विंटल कंद की दर से बीज का उपचार करके ही बुवाई करें। बुवाई के दौरान खेत में पर्याप्त नमी रखें। एक पंक्ति की दूसरी पंक्ति 50 से 60 सेमी के फासले पर रखें। कंद से कंद 15 सेमी की दूरी पर बोएं। आलू की बुवाई के 7 से 10 दिन के पश्चात हल्की सिंचाई कर दें। खरपतवार नियंत्रण के दो से चार पत्ती आने पर मेट्रिब्यूजीन 70 प्रतिशत, डब्ल्यूपी 100 ग्राम मात्रा 200 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करें।